Class 10th हिन्दी गंद्याश की संदर्भ प्रंसग सहित व्याख्या NCERT HINDI SOLUTION
1) बालगोबिन भगत की संगीत साधना का चरम उत्कर्ष उस दिन देखा गया जिस दिन उनका बेटा मरा | इकलौता बेटा था वह कुछ सुस्त और बोदा-सा था, किन्तु इसी कारण बालगोबिन भगत उसे और भी मानते। उनकी समझ से ऐसे आदमियों पर ही ज्यादा नजर रखनी चाहिए या प्यार करना चाहिए क्योंकि ये निगरानी और मुहब्बत के ज्यादा हकदार होते हैं।
उत्त्तर :-
संदर्भ - यह गद्यांश हमारी पाठय - पुस्तक के बालगोबिन भगत' पाठ से लिया गया है | इसके लेखक रामवृक्ष बेनीपुरी हैं |
प्रसंग- इसमें बालगोबिन भगत के मानवीय रूप का अंकन किया है।
व्याख्या - संगीत के प्रति गहरा लगाव रखने वाले बालगोबिन भगत की संगीत साधना का सबसे उत्कृष्ट रूप उस दिन देखने को मिला जिस दिन उनके पुत्र की मृत्यु हुई। वह उनका अकेला बेटा था। वह दिमाग से कमजोर तथा निर्बल था। बालगोबिन भगत मानते थे कि इस तरह के लोगों का विशेष ध्यान रखा जाना चाहिए। ऐसे लोग अधिक देखभाल तथा सहायता के अधिकारी होते हैं। ये अपनी देखभाल नहीं कर पाते हैं इसलिए दूसरों को इनकी हिफाजत का ध्यान रखना जरूरी होता है। विशेष - (1) बालगोबिन भगत के चरित्र का महत्वपूर्ण पक्ष उजागर हुआ है। (2) वर्णनात्मक शैली तथा व्यावहारिक भाषा का प्रयोग किया गया है।
2) काशी में संगीत आयोजन की एक परम्परा है। यह आयोजन पिछले कई बरसों से संकटमोचन मंदिर में होता आया है। यह मंदिर शहर के दक्षिण में लंका पर स्थित है व हनुमान जयंती के अवसर पर यहाँ पाँच दिनों तक शास्त्रीय एवं उपशास्त्रीय गायन वादन की उत्कृष्ट सभा होती है। इसमें बिस्मिल्ला खाँ अवश्य रहते हैं। अपने मजहब के प्रति अत्यधिक समर्पित उस्ताद बिस्मिला खाँ की अद्धा काशी विश्वनाथ जी के प्रति भी अपार है।
उत्त्तर:-
संदर्भ- प्रस्तुत गद्यांश 'पाठ्य पुस्तक' 'क्षितिज' से लिया गया है। रचनाकार श्रीयतीन्द्र मिश्र हैं। प्रसंग- उक्त पंक्तियों में लेखक ने संगीत व शहनाई के सरताज बिस्मिल्ला खाँ के काशी-प्रेम व भारत रत्न से नवाजे गए व हुए अनेक मानद उपाधियों से अलंकृत खाँ साहब भविष्य में भी संगीत के नायक बने रहेंगे। इसी बात को उद्धृत करते लेखक कहते हैं कि- व्याख्या- काशी आनंदकानन है। काशी में अब भी संगीत की परम्परा बची हुई है। काशी आज भी संगीत के स्वर पर जागती है और उसकी थापों पर सोती है। बिस्मिल्ला खाँ कको नायाब हीरा इसलिए कहा गया है, क्योंकि वे एक अद्वितीय शहनाई वादक होने के साथ ही लय और सुर की तमीज सिखाने वाले उस्ताद भी थे। वे हमेशा से दो कौमों को एक होने तथा परस्पर भाईचारे के सात रहने की प्रेरणा देते रहे। उनकी सबसे बड़ी देन यही है कि उन्होंने संगीत को सम्पूर्णता व एकाधिकार से सीखने कीजिजीविका को अपने भीतर जीवित रखा।
उत्तर :-
संदर्भ- यह गद्यांश हमारी पाठ्य - पुस्तक ने ' नेताजी का चाश्मा ' पाठ से लिया गया है | इसके लेखक स्वयं प्रकाश है |
प्रसंग-इसमें हालदार साहब की देशवासियों की स्वार्थी प्रवृत्ति तथा देश-प्रेम के अभाव पर चिन्ता व्यक्त हुई है।
व्याख्या-देश-प्रेम से भरे हालदार साहब पुन: पुन: विचार करते हैं कि इस देश में निवास करने वाली स्वार्थी जातियों के कार्यों का क्या परिणाम होगा। ये लोग देश के लिए अपने घर-परिवार, यौवन, जीवन आदि को न्यौछावर कर देने वालों का मजाक बनाते हैं। दूसरी ओर ये अपनी स्वार्थपूर्ति के लिए अपने ईमान को बेचने के अवसरों की खोज में रहते हैं। इस स्वार्थी समाज की करतूतों के प्रति चिन्तित होते हुए हालदार साहब अत्यन्त दुःखी हो उठे
4 काशी संस्कृति की पाठशाला है। शास्त्रों में आनंदकानन के नाम से प्रतिष्ठित । काशी में कलाधर हनुमान व नृत्य विश्वनाथ हैं। काशी में बिस्मिल्ला खाँ है। काशी में हजारों सालों का इतिहास है जिससे पंडित कंठे महाराज है, विद्याधरी है, बड़े रामदास जी हैं, मौजुद्दीन खाँ है व इन रसिकों से उपकृत होने वाला अपार जन समूह है।
उत्तर –
संदर्भ- यह गद्यांश हमारी पाठ्य - पुस्तक ने ' नौबतखाने में इबादत ' पाठ से लिया गया है | इसके लेखक यतींद्र मिश्र हैं ||
प्रसंग – इसमें काशी की कला साधना के विषय में बताया गया है जिसके कारण उसकी खास पहचान है |
व्याख्या- काशी को भारतीय संस्कृतियों का संग्रहालय कहा जा सकता है। शास्त्रों में काशी की ‘आनन्द कानन’ अर्थात आनन्द प्रदान करने वाला वन कहा गया है। काशी में कलाधर हनुमान और नृत्य विश्वनाथ जैसे दर्शनीय मंदिर हैं। काशी में बिस्मिल्ला खाँ जैसे महान संगीतज्ञ हुए हैं। काशी नगरी का भारत के हजारों वर्ष प्राचीन ग्रन्थों में वर्णन मिलता है।
काशी के महत्व को दर्शाने वाली विभूतियों में कंठे महाराज, विद्याधरी, बड़े रामदास और मौजुद्दीन जैसे कलामर्मज्ञ और रसिक लोग रहते आए हैं। इस काशी में निवास करने वालों की सभ्यता, शिष्टता और बोली सभी भिन्न हैं। इन लोगों के त्योहार, शोक प्रदर्शन के रूप तथा गाए जाने वाले लोकगीत भी अपनी विशेषताओं से युक्त हैं।
5) बालगोबिन भगत मँझोले कद के गोर- चिट्टे आदमी थे। साठ से ऊपर के ही होंगे। बाल पक गए थे। लम्बी दाढ़ी या जटाजूट तो नहीं रखते थे, किन्तु हमेशा उनका चेहरा सफ़ेद बालों से ही जगमग किए रहता | कपड़े बिलकुल कम पहनते । कमर में एक लंगोटी मात्र और सिर में कबीरपंथियों की सी कनफटी टोपी। जब, जाड़ा आता एक काली कमली ऊपर से ओढ़े रहते |
उत्तर —
संदर्भ- प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक क्षितिज के 'बालगोबिन भगत' नामक पाठ से लिया गया है। इसके लेखक श्री रामवृक्ष बेनीपुरी जी हैं। प्रसंग- प्रस्तुत गद्यांश में द्वारा बालगोबिन भगत के व्यक्तित्व का वर्णन किया गया है। व्याख्या- बालगोबिन भगत मँझोले कद के थे। उनकी उम्र करीब साठ उनके चेहरे पर पके बाल और थोड़ी बढ़ी हुई दाढ़ी चमकती रहती थी। उनकी कमर में लंगोटी और सिर पर कबीर पंथी टोपी रहती थी। ठंड के दिनों में वे एक काला कंबल और ओढे रहते थे। मस्तक पर हमेशा चंदन का टीका और गले में तुलसी की माला उनकी पहचान थी। 6) एक संस्कृत व्यक्ति किसी नयी चीज की खोज करता है, किंतु उसकी संतान वह अपने पूर्वज से अनायास ही प्राप्त हो जाती है। जिस व्यक्ति की बुद्धि ने अथवा उसके विवेक ने किसी भी नए तथ्य का दर्शन किया, वह व्यक्ति ही वास्तविक संस्कृत व्यक्ति है और उसकी संतान जिसे अपने पूर्वज से वह वस्तु अनायास ही प्राप्त हो गई है, वह अपने पूर्वज की भाँति सभ्य भले ही बन जाए संस्कृत नहीं कहला सकता।
उत्तर —
संदर्भ- यह गद्य खण्ड हमारी पाठ्य - पुस्तक के ' संस्कृति ' पाठ से लिया है | इसके लेखक भदंत आनंद कौसल्यायन है |
प्रसंग-यहाँ बताया गया है कि कौन व्यक्ति संस्कृत होगा और कौन सभ्य ।
व्याख्या-लेखक स्पष्ट करते हैं कि अपनी बुद्धि या विवेक द्वारा किसी नये तथ्य का दर्शन करने वाला तथा नया आविष्कार करने वाला व्यक्ति ही संस्कृत व्यक्ति होता है। जिस सन्तान को बिना किसी प्रयत्न के जो चीज खोज करने वाले से मिल गई है वह संस्कृत नहीं कहा जा सकता है । सन्तान को पूर्वज की तरह सभ्य तो कह सकते हैं किन्तु उसे संस्कृत नहीं कहा जा सकता है।
विशेष-
(1) जो आविष्कार करता है, संस्कृत होता है जबकि उसकी सन्तान सभ्य होती है।
(2) विचारात्मक शैली तथा साहित्यिक भाषा को अपनाया है।
7) ठाली बैठे. कल्पना करते रहने की पुरानी आदत है। नवाब साहब की असुविधा और संकोच के कारण का अनुमान करने लगे। संभव है. नवाब साहब ने बिलकुल अकेले यात्रा कर सकने के अनुमान में किफायत के विचार से सेकंड क्लास का टिकट खरीद लिया हो और अब गवारा न हो कि शहर का कोई सफेदपोश उन्हें मँझले दर्जे में सफर करता देखे।... अकेले सफर का वक्त काटने के लिए ही खीर खरीदे होंगे और अब किसी सफेदपोश के सामने खीरा कैसे खाएं? हम कनखियों से नवाब साहब की ओर देख रहे थे।
उत्तर –
संदर्भ-प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक के 'लखनवी अंदाज' नामक पाठ से लिया गया है। इसके लेखक यशपाल है। प्रसंग-लेखक ने एकान्त में सोच सकने के लिए सेकण्ड क्लास का टिकट लेकर एकान्त में यात्रा का मन बनाया। किन्तु गाड़ी में पहुँचने पर उन्हें एक नवाब साहब बैठे मिले जिनको उनके आने से असुविधा हो रही थी। व्याख्या-लेखक गाड़ी के डिब्बे में चढ़े तो देखा कि एक नवाब साहब पहले से डिब्बे में बैठे हैं। उन्होंने लेखक की ओर असन्तोष भरी नजरों से देखा। लेखक की पुरानी आदत है कि वे जब भी खाली होते तो कुछ-न-कुछ सोचने लगते हैं। इसलिए उन्होंने विचार करना प्रारम्भ कर दिया कि इन नवाब साहब को उनके आने से असुविधा और संकोच क्यों हो रहा है। लेखक ने सोचा कि सम्भवतः नवाब साहब ने अकेले यात्रा करने का मन बनाया होगा। इसीलिए कुछ कम खर्च करके सेकण्ड क्लास का टिकट खरीदा होगा। अब उन्हें उनका आना स्वीकार नहीं होगा। वे चाहते होंगे कि नगर के कोई सज्जन उन्हें सेकण्ड क्लास में यात्रा करते हुए न देखे। सेकण्ड क्लास में यात्रा करना उन्हें अपनी बेइज्जती लग रही होगी। विशेष-
(1) दिखावे का जीवन जीने वालों पर व्यंग्य किया गया है।
(2) बनावटी जीवन जीने वालों की कुण्ठाओं को उजागर किया है।
(3) आत्मकथन शैली तथा अरबी-फारसी शब्दों से युक्त खड़ी बोली का प्रयोग हुआ है। 8) एक संस्कृत व्यक्ति किसी नयी चीज़ की खोज करता है; किंतु उसकी संतान को वह अपने पूर्वज से अनायास ही प्राप्त हो जाती है। जिस व्यक्ति की बुद्धि ने अथवा उसके विवेक ने किसी भी नए तथ्य का दर्शन किया, वह व्यक्ति ही वास्तविक संस्कृत व्यक्ति है और उसकी संतान जिसे अपने पूर्वज से वह वस्तु अनायास ही प्राप्त हो गई है, वह अपने पूर्वज की भाँति सभ्य भले ही बन जाए, संस्कृत नहीं कहला सकता।
उत्तर :-
संदर्भ - यह गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक के 'संस्कृति' पाठ से अवतरित है। इसके लेखक भदंत आनंद कौसल्यायन हैं। प्रसंग - इसमें बताया गया है कि कौन व्यक्ति संस्कृत होगा और कौन सभ्य। व्याख्या - लेखक कहते हैं कि अपनी बुद्धि या विवेक द्वारा किसी नए तथ्य का दर्शन करने वाला तथा नया अविष्कार करने वाला व्यक्ति ही संस्कृत व्यक्ति होता है। जिस संतान को बिना किसी प्रयत्न के जो चीज़ खोज करने वाले से मिल गई है वह संस्कृत नहीं कहा जा सकता है। संतान को पूर्वज की तरह सभ्य तो कह सकते हैं किंतु उसे संस्कृत नहीं कहा जा सकता है।
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